कितने बार दिल हारा है
कितनी ही बार हारी हूँ मैं
फिर भी हर बार संभाला है खुद को
कितनी ही बातों से समझाया है खुद को
कितनी उम्मीदें ,कितनी ख्वाहिशें ,कितने ही ख़्वाब
बस ! जलते बुझते से जुगनू की तरह
दफ्न पड़े हैं आज भी
ख़ामोशी की कब्र में ....
सालिहा मंसूरी
23.01.16 05:58 pm
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