सूने से दिन- सूनी सी रात
फिर भी बुनते रहते हैं
इक खूबसूरत सा ख्वाब
जानते हैं कि –
तुम नहीं मिलोगे कभी
फिर भी देते रहते हैं
खुद को कुछ उम्मीदों की आस
ठहरा हुआ है आज भी
इस अँधेरे से घर में
तेरी यादों का वजूद
और बिखरे पड़े हैं
खामोशी में सिमटे
कुछ अनकहे , कुछ अनसुने
अधूरे से शब्द !
सालिहा मंसूरी
26.12.15 10:35 pm
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